आचार्य चतुरसेन शास्त्री

आचार्य चतुरसेन शास्त्री

चतुरसेन शास्त्री

जीवन परिचय

आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म 26 अगस्त 1891 ई॰ को उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले के चांदोख में हुआ था। उनके पिता का नाम केवलराम ठाकुर तथा माता का नाम नन्हीं देवी था।
उनका मूल नाम चतुर्भुज था। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव के पास स्थित सिकन्दराबाद के एक स्कूल में समाप्त की। फिर उन्होंने राजस्थान के जयपुर के संस्कृत कॉलेज में प्रवेश किया। यहाँ से उन्होंने सन १९१५ में आयुर्वेद में आयुर्वेदाचार्य तथा संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने आयुर्वेद विद्यापीठ से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि भी प्राप्त की।
चतुरसेन बहुत ही भावुक, संवेदनशील और स्वाभिमानी प्रकृति के थे। दीन-दुखियों तथा रोगियों के प्रति उनके मन में असाधारण करुणा भाव था। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वे आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में कार्य करने के लिए दिल्ली आ गए। उन्होंने दिल्ली में अपनी खुद की आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी खोली, लेकिन यह अच्छी तरह से नहीं चला और इसे बन्द करना पड़ा। इसके कारण आर्थिक स्थिति इतनी अधिक बिगड़ी कि उन्हें अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़े। अब वह प्रति माह 25 रुपये के वेतन पर एक अमीर आदमी के धर्मार्थ औषधालय में शामिल हो गए।
सन 1917 में, वे डीएवी कॉलेज, लाहौर में आयुर्वेद के वरिष्ठ प्रोफेसर के रूप में शामिल हुए। यहाँ का प्रबन्धन उनका अपमान कर रहा था, इसलिए, उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अपने ससुर के कल्याण औषधालय में मदद करने के लिए अजमेर आ गए। इस औषधालय में काम करते हुए उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो गयी। उन्होंने लिखना शुरू किया और जल्द ही एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
यह बचपन से ही आर्य समाज से प्रभावित थे और इन्होंने अनाज मंडी शाहदरा का घर दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड को दान कर दिया था, जिसमें आजकल विशाल लाइब्रेरी है।

कृतियाँ

चतुरसेन शास्त्री हिन्दी के उन साहित्यकारों में हैं जिनका लेखन-क्रम साहित्य की किसी एक विशिष्ट विधा में सीमित नहीं किया जा सकता। शास्त्रीजी ने जीवन के संघर्षो के बीच अपनी रचनाधर्मिता जारी रखी। लगभग पचास वर्ष के लेखकीय जीवन में सृजित उनकी प्रकाशित रचनाओं की संख्या 186 है। इनका अधिकांश लेखन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित था। आचार्य चतुरसेन का कथा-साहित्य हिन्दी के लिए एक गौरव है।
उन्होंने अपनी किशोरावस्था से ही हिन्दी में कहानी और गीतिकाव्य लिखना आरम्भ कर दिया था। बाद में उनका साहित्य-क्षितिज फैलता गया और वे उपन्यास, नाटक, जीवनी, संस्मरण, इतिहास तथा धार्मिक विषयों पर लिखने लगे।
वे मुख्यतः अपने उपन्यासों के लिए चर्चित रहे हैं। परन्तु उपन्यासों के अलावा उन्होंने और भी बहुत कुछ लिखा है। उन्होने प्रायः साढ़े चार सौ कहानियाँ लिखीं हैं। गद्य-काव्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर भी उन्होंने अधिकारपूर्वक लिखा है। रचनाकारों ने तिलस्मी एवं जासूसी उपन्यास लिखे जो कि उन दिनों अत्यन्त लोकप्रिय हुए।
आचार्य चतुरसेन के उपन्यास रोचक और दिल को छूने वाले होते है। सन् 1981 में उन्होंने अपना पहला उपन्यास ”हृदय की परख” रचा । इसके बाद 1921 में सत्याग्रह और असहयोग विषय पर गांधीजी पर केन्द्रित आलोचनात्मक पुस्तक लिखी, जो काफी चर्चित रही। साढ़े चार सौ कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने बत्तीस उपन्यास तथा अनेक नाटक लिखे। साथ ही गद्या, इतिहास, धर्म, राजनीति, समाज, स्वास्थ्य-चिकित्सा आदि विभिन्न विषयों पर उन्होंने लेखन कार्य किया ।
उनके उपन्यासों में ”वैशाली की नगरवधू”, ”सोमनाथ”, ”वयं रक्षामः”, “सौना और खून”, ”आलमगीर” इत्यादि प्रसिद्ध हैं। शास्त्रीजी के उपन्यासों में ग्रामीण, नगरीय, राजसी जीवनशैली की झलक देखने को मिलती है । वे पुराण, इतिहास, संस्कृत, मानव साहित्य और स्वास्थ्य विषयक साहित्य पर बड़ी गम्भीरता और ईमानदारी से लिखते रहे।
आरोग्य शास्त्र, स्त्रियों की चिकित्सा, आहार और जीवन, मातृकला तथा अविवाहित युवक-युवतियों के लिए भी उन्होंने उपयोगी पुस्तकें लिखी। शास्त्रीजी अध्येता ही नहीं, कुशल चिकित्सक भी थे। उन्होंने आयुर्वेद सम्बन्धी लगभग एक दर्जन ग्रंथ लिखे। व्यवसाय से वैद्य होने पर भी उन्होंने साहित्य-सर्जन में गहरी रुचि बनाए रखी।
चतुरसेनजी ने ”यादों की परछाई” अपनी आत्मकथा में ‘राम’ को ईश्वर रूप में न बताकर मानव रूप में बताया। समाज और मनुष्य के कल्याणार्थ लिखा गया उनका साहित्य सभी के लिए उपयोगी रहा है।
शास्त्रीजी अपनी शैली के अनोखे लेखक थे, जो अपने कथा-साहित्य में भी इतिहास, राजनीति, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र और युगबोध से सम्पृक्त विविध विषयों को दृष्टि में रखकर लिखते थे।
उनकी प्रमुख कृतियां हैं-

उपन्यास

वैशाली की नगरवधू, सोमनाथ , वयंरक्षामः, गोली, सोना और खून (तीन खंड), रक्त की प्यास, हृदय की प्यास, अमर अभिलाषा, नरमेघ, अपराजिता, धर्मपुत्र
देवांगना-इस उपन्यास के संदर्भ में चतुरसेन शास्त्री लिखते हैं कि- "हमारा यह उपन्यास बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की घटनाओं पर आधारित है।"

नाटक

राजसिंह, मेघनाथ, छत्रसाल, गांधारी, श्रीराम, अमर राठौर , उत्सर्ग, क्षमा

गद्यकाव्य

हृदय की परख, अन्तस्तल, अनुताप, रूप, दुःख, मां गंगी, अनूपशहर के घाट पर, चित्तौड़ के किले में, स्वदेश

आत्मकथा

मेरी आत्मकहानी

कहानी संग्रह

हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास (सात खंड), अक्षत, रजकण, वीर बालक, मेघनाद, सीताराम, सिंहगढ़ विजय, वीरगाथा, लम्बग्रीव, दुखवा मैं कासों कहूं सजनी, कैदी, आदर्श बालक, सोया हुआ शहर, कहानी खत्म हो गई, धरती और आसमान, मेरी प्रिय कहानियां

एकांकी संग्रह

राधाकृष्ण, पांच एकांकी, प्रबुद्ध, सत्यव्रत हरिश्चंद्र, अष्ट मंगल

अन्य

आरोग्य शास्त्र, अमीरों के रोग, छूत की बीमारियां, सुगम चिकित्सा, काम-कला के भेद (आयुर्वेदिक ग्रंथ), सत्याग्रह और असहयोग, गोलसभा, तरलाग्नि, गांधी की आंधी (पराजित गांधी), मौत के पंजे में जिन्दगी की कराह (राजनीति) ।
इनके अतिरिक्त शास्त्रीजी ने प्रौढ़ शिक्षा, स्वास्थ्य, धर्म, इतिहास, संस्कृति और नैतिक शिक्षा पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं।