१५. छंद

छंद



 प्राचीन काल के ग्रंथों में संस्कृत में कई प्रकार के छन्द मिलते हैं जो वैदिक काल के जितने प्राचीन हैं। वेद के सूक्त भी छन्दबद्ध हैं। पिंगल द्वारा रचित छन्दशास्त्र इस विषय का मूल ग्रन्थ है। छन्द पर चर्चा सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुई है। वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है। छन्दस् शब्द 'छद' धातु से बना है। इसका धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - 'जो अपनी इच्छा से चलता है'। इसी मूल से स्वच्छंद जैसे शब्द आए हैं। अत: छंद शब्द के मूल में गति का भाव है। किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम साहित्य है। संसार में जितना साहित्य मिलता है ’ ऋग्वेद ’ उनमें प्राचीनतम है। ऋग्वेद की रचना छंदोबद्ध ही है। यह इस बात का प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशेष कथन हेतु छंदो का प्रयोग होता था।छंद को पद्य रचना का मापदंड कहा जा सकता है। बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को साकार नहीं किया जा सकता।

                                             वर्णो या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आहाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते है। दूसरे शब्दो में-अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रागणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना 'छन्द' कहलाती है।

छंद के अंग

छंद के निम्नलिखित अंग होते हैं -

छन्द के अंग

छन्द के निम्नलिखित अंग है-
(1)चरण /पद /पाद
(2) वर्ण और मात्रा
(3) संख्या क्रम और गण
(4)लघु और गुरु
(5) गति
(6) यति /विराम
(7) तुक

(1) चरण /पद /पादा

  • छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं।
    दूसरे शब्दों में- छंद के चतुर्थाश (चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं।
  • कुछ छंदों में चरण तो चार होते है लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक को 'दल' कहते हैं।
  • हिन्दी में कुछ छंद छः-छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं। ऐसे छंद दो छंदों के योग से बनते है, जैसे कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला) आदि।
  • चरण 2 प्रकार के होते है- सम चरण और विषम चरण।
    प्रथम व तृतीय चरण को विषम चरण तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण को सम चरण कहते हैं।

(2) वर्ण और मात्रा

वर्ण/अक्षर

  • एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर हस्व हो या दीर्घ।
  • जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर- कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता।
  • वर्ण को ही अक्षर कहते हैं। 'वर्णिक छंद' में चाहे हस्व वर्ण हो या दीर्घ- वह एक ही वर्ण माना जाता है; जैसे- राम, रामा, रम, रमा इन चारों शब्दों में दो-दो ही वर्ण हैं।
  • वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-
    (i)हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ
    (ii)दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण) : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ

मात्रा

किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- किसी वर्ण के उच्चारण में जो अवधि लगती है, उसे मात्रा कहते हैं।

हस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है।

मात्रा दो प्रकार के होते है-
हस्व : अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ

वर्ण और मात्रा की गणना

वर्ण की गणना

  • हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण)- एकवर्णिक- अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ
  • दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण)- एकवर्णिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ

मात्रा की गणना

  • हस्व स्वर- एकमात्रिक- अ, इ, उ, ऋ
    दीर्घ स्वर- द्विमात्रिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
  • वर्णो और मात्राओं की गिनती में स्थूल भेद यही है कि वर्ण 'सस्वर अक्षर' को और मात्रा 'सिर्फ स्वर' को कहते है।

वर्ण और मात्रा में अंतर- वर्ण में हस्व और दीर्घ रहने पर वर्ण-गणना में कोई अंतर नहीं पड़ता है, किंतु मात्रा-गणना में हस्व-दीर्घ से बहुत अंतर पड़ जाता है। उदाहरण के लिए, 'भरत' और 'भारती' शब्द कोलें। दोनों में तीन वर्ण हैं, किन्तु पहले में तीन मात्राएँ और दूसरे में पाँच मात्राएँ हैं।

(3) संख्या क्रम और गण

वर्णो और मात्राओं की सामान्य गणना को संख्या कहते हैं, किन्तु कहाँ लघुवर्ण हों और कहाँ गुरुवर्ण हों- इसके नियोजन को क्रम कहते है।
छंद-शास्त्र में तीन मात्रिक वर्णो के समुदाय को गण कहते है।

गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा। सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ लघु और गुरू मात्राओं के सूचक हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।
‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।
। ऽ ऽ can ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा

वर्णिक छंद में न केवल वर्णों की संख्या नियत रहती है वरन वर्णो का लघु-गुरु-क्रम भी नियत रहता है।
मात्राओं और वर्णों की 'संख्या' और 'क्रम' की सुविधा के लिए तीन वर्णों का एक-एक गण मान लिया गया है। इन गणों के अनुसार मात्राओं का क्रम वार्णिक वृतों या छन्दों में होता है, अतः इन्हें 'वार्णिक गण' भी कहते है। इन गणों की संख्या आठ है। इनके ही उलटफेर से छन्दों की रचना होती है। इन गणों के नाम, लक्षण, चिह्न और उदाहरण इस प्रकार है-

गण वर्ण क्रम चिह्न उदाहरण प्रभाव
यगण आदि लघु, मध्य गुरु, अन्त गुरु ।ऽऽ बहाना शुभ
मगन आदि, मध्य, अन्त गुरु ऽऽ आजादी शुभ
तगण आदि गुरु, मध्य गुरु, अन्त लघु ऽऽ। बाजार अशुभ
रगण आदि गुरु, मध्य लघु, अन्त गुरु ऽ।ऽ नीरजा अशुभ
जगण आदि लघु, मध्य गुरु, अन्त लघु ।ऽ। प्रभाव अशुभ
भगण आदि गुरु, मध्य लघु, अन्त लघु ऽ।। नीरद शुभ
नगण आदि, मध्य, अन्त लघु ।।। कमल शुभ
सगन आदि लघु, मध्य लघु, अन्त गुरु ।।ऽ वसुधा अशुभ

काव्य या छन्द के आदि में 'अगण' अर्थात 'अशुभ गण' नहीं पड़ना चाहिए। शायद उच्चारण कठिन अर्थात उच्चारण या लय में दग्ध होने के कारण ही कुछ गुणों को 'अशुभ' कहा गया है। गणों को सुविधापूर्वक याद रखने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा: । इस सूत्र में प्रथम आठ वर्णों में आठ गणों के नाम आ गये है। अन्तिम दो वर्ण 'ल' और 'ग' छन्दशास्त्र में 'दशाक्षर' कहलाते हैं। जिस गण का स्वरूप जानना हो, उस गण के आद्यक्षर और उससे आगे दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लेना होता है। जैसे- 'तगण' का स्वरूप जानना हो तो इस सूत्र का 'ता' और उससे आगे के दो अक्षर 'रा ज'='ताराज', ( ऽऽ।) लेकर 'तगण' का लघु-गुरु जाना जा सकता है कि 'तगण' में गुरु+गुरु+लघु, इस क्रम से तीन वर्ण होते है। यहाँ यह स्मरणीय है कि 'गण' का विचार केवल वर्णवृत्त में होता है, मात्रिक छन्द इस बन्धन से मुक्त है।

(4) लघु और गुरु

लघु-

(i) अ, इ, उ- इन हस्व स्वरों तथा इनसे युक्त एक व्यंजन या संयुक्त व्यंजन को 'लघु' समझा जाता है। जैसे- कलम; इसमें तीनों वर्ण लघु हैं। इस शब्द का मात्राचिह्न हुआ- ।।।।

(ii) चन्द्रबिन्दुवाले हस्व स्वर भी लघु होते हैं। जैसे- 'हँ' ।

गुरु-

(i) आ, ई, ऊ और ऋ इत्यादि दीर्घ स्वर और इनसे युक्त व्यंजन गुरु होते है। जैसे- राजा, दीदी, दादी इत्यादि। इन तीनों शब्दों का मात्राचिह्न हुआ- ऽऽ।
(ii) ए, ऐ, ओ, औ- ये संयुक्त स्वर और इनसे मिले व्यंजन भी गुरु होते हैं। जैसे- ऐसा ओला, औरत, नौका इत्यादि।
(iii) अनुस्वारयुक्त वर्ण गुरु होता है। जैसे- संसार। लेकिन, चन्द्रबिन्दुवाले वर्ण गुरु नहीं होते।
(iv) विसर्गयुक्त वर्ण भी गुरु होता है। जैसे- स्वतः, दुःख; अर्थात- ।ऽ, ऽ ।।
(v) संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण गुरु होता है। जैसे- सत्य, भक्त, दुष्ट, धर्म इत्यादि, अर्थात- ऽ।।

(5) गति

छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं।

वर्णवृत्तों में इसकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु मात्रिक वृतों में इसकी आवश्यकता पड़ती है। 'जब सकोप लखन वचन बोले' में ९६ मात्राएँ हैं, लेकिन इसे हम चौपाई का एक चरण नहीं मान सकते, क्योंकि इसमें गति नहीं है। गति ठीक करने के लिए इसे 'लखन सकोप वचन जब बोले' करना पड़ेगा।

गति का महत्व वर्णिक छंदों की अपेक्षा मात्रिक छंदों में अधिक है। बात यह है कि वर्णिक छंदों में तो लघु-गुरु का स्थान निश्चित रहता है किन्तु मात्रिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित नहीं रहता, पूरे चरण की मात्राओं का निर्देश मात्र रहता है।
मात्राओं की संख्या ठीक रहने पर भी चरण की गति (प्रवाह) में बाधा पड़ सकती है।

जैसे- (1) दिवस का अवसान था समीप में गति नहीं है जबकि 'दिवस का अवसान समीप था' में गति है।
(2) चौपाई, अरिल्ल व पद्धरि- इन तीनों छंदों के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएं होती है पर गति भेद से ये छंद परस्पर भिन्न हो जाते हैं।

अतएव, मात्रिक छंदों के निर्दोष प्रयोग के लिए गति का परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।
गति का परिज्ञान भाषा की प्रकृति, नाद के परिज्ञान एवं अभ्यास पर निर्भर करता है।

(6) यति /विराम

छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिए रूकना पड़ता है, इसी रूकने के स्थान को यति या विराम कहते है।

छन्दशास्त्र में 'यति' का अर्थ विराम या विश्राम ।

छोटे छंदों में साधारणतः यति चरण के अन्त में होती है; पर बड़े छंदों में एक ही चरण में एक से अधिक यति या विराम होते है।
बड़े छंदों के एक-एक चरण में इतने अधिक वर्ण होते हैं कि लय को ठीक करने तथा उच्चारण की स्पष्टता के लिए कहीं-कहीं रुकना आवश्यक हो जाता है। जैसे- 'देवघनाक्षरी' छंद के प्रत्येक चरण में ३३ वर्ण होते हैं और इसमें ८, ८, ८, ९ पर यति होती है। अर्थात आठ, आठ, आठ वर्णों के पश्र्चात तीन बार थोड़ा रुककर उच्चारण करना पड़ता है।

(7) तुक

छंद के चरणों के अंत में समान स्वरयुक्त वर्ण स्थापना को 'तुक' कहते हैं।
जैसे- आई, जाई, चक्र-वक्र आदि से चरण समाप्त करने पर कहा जाता है कि कविता तुकांत है।

जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं।
अतुकान्त छंद को अँग्रेजी में ब्लैंक वर्स (Blank Verse) कहते हैं।


छंद के प्रकार

  • मात्रिक छंद ː जिन छंदों में मात्राओं की संख्या निश्चित होती है उन्हें मात्रिक छंद कहा जाता है। जैसे - अहीर, तोमर, मानव; अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई; पीयूषवर्ष, सुमेरु, राधिका, रोला, दिक्पाल, रूपमाला, गीतिका, सरसी, सार, हरिगीतिका, तांटक, वीर या आल्हा
  • वर्णिक छंद ː वर्णों की गणना पर आधारित छंद वर्णिक छंद कहलाते हैं। जैसे - प्रमाणिका; स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक; वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक; वसंततिलका; मालिनी; पंचचामर, चंचला; मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, शार्दूल विक्रीडित, स्त्रग्धरा, सवैया, घनाक्षरी, रूपघनाक्षरी, देवघनाक्षरी, कवित्त / मनहरण
  • वर्णवृत ː सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी वर्णिक मुक्तक : इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या निश्चित होती है किन्तु वर्णों का मात्राभार निश्चित नहीं रहता है जैसे मनहर, रूप, कृपाण, विजया, देव घनाक्षरी आदि।
  • मुक्त छंदː भक्तिकाल तक मुक्त छंद का अस्तित्व नहीं था, यह आधुनिक युग की देन है। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं। मुक्त छंद नियमबद्ध नहीं होते, केवल स्वछंद गति और भावपूर्ण यति ही मुक्त छंद की विशेषता हैं।
  • मुक्त छंद का उदाहरण -
वह आता
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को,
मुँह फटी-पुरानी झोली का फैलाता,
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।

काव्य में छंद का महत्त्व

  • छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
  • छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
  • छंद में स्थायित्व होता है।
  • छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
  • छंद के निश्चित लय पर आधारित होने के कारण वे सुगमतापूर्वक कण्ठस्थ हो जाते हैं।

छंद का उदाहरण

भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥
अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो बाघम्बर था, वह (अमृत बूँद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।

छंदों के कुछ प्रकार

दोहा

दोहा मात्रिक छंद है। इसे अर्द्ध सम मात्रिक छंंद कहते हैं । दोहे में चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। दोहे के मुख्य 23 प्रकार हैं:- 1.भ्रमर, 2.सुभ्रमर, 3.शरभ, 4.श्येन, 5.मण्डूक, 6.मर्कट, 7.करभ, 8.नर, 9.हंस, 10.गयंद, 11.पयोधर, 12.बल, 13.पान, 14.त्रिकल 15.कच्छप, 16.मच्छ, 17.शार्दूल, 18.अहिवर, 19.व्याल, 20.विडाल, 21.उदर, 22.श्वान, 23.सर्प। दोहे में विषम एवं सम चरणों के कलों का क्रम निम्नवत होता है
विषम चरणों के कलों का क्रम 4+4+3+2 (चौकल+चौकल+त्रिकल+द्विकल) 3+3+2+3+2 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल+द्विकल)
सम चरणों के कलों का क्रम 4+4+3 (चौकल+चौकल+त्रिकल) 3+3+2+3 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल) उदाहरण -
रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुःख, छाया-धूप।
यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप॥

।।। ऽ। ।। ऽ।ऽ ऽ। ऽ। ।।ऽ।
लसत मंजु मुनि मंडली, मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभा जनु तनु धरें, भगति सच्चिदानंदु॥
-तुलसी: रामचरितमानस

स्पष्टीकरण-इस पद्य के पहले और तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ हैं और दूसरे तथा चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ हैं; अतः यह ‘दोहा’ छन्द है।


दोही

दोही दोहे का ही एक प्रकार है। इसके विषम चरणों में १५-१५ एवं सम चरणों में ११-११ मात्राऐं होती हैं।उदाहरण-
प्रिय पतिया लिख-लिख थक चुकी,मिला न उत्तर कोय।
सखि! सोचो अब में क्या करूँ,सूझे राह न कोय।।

रोला

रोला मात्रिक सम छंद होता है। इसके प्रत्येक पंक्ति में २४ मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक चरण यति पर दो पदों में विभाजित हो जाता है l
पहले पद के कलों का क्रम निम्नवत होता है -
4+4+3 (चौकल+चौकल+त्रिकल) अथवा 3+3+2+3 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल)
दूसरे पद के कलों का क्रम निम्नवत होता है -
3+2+4+4 (त्रिकल+द्विकल+चौकल+चौकल) अथवा 3+2+3+3+2 (त्रिकल+द्विकल+त्रिकल+त्रिकल+द्विकल) उदाहरण -
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥

सोरठा

सोरठा अर्ध्दसम मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण -
जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥

चौपाई

चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। सिंह विलोकित, पद्धरि, अरिल्ल, अड़िल्ल, पादाकुलक आदि छंद चौपाई के समान लक्षण वाले छंद हैं।उदाहरण -
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥

कुण्डलिया

कुण्डलिया विषम मात्रिक छंद है। इसमें छः चरण होते हैं अौर प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। उदाहरण -
कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

गीतिका (छंद)

गीतिका (छंद) मात्रिक सम छंद है जिसमें ​२६ मात्राएँ होती हैं​​​​।​ १४​ और ​१२ पर यति तथा अंत में लघु -गुरु ​आवश्यक है। ​इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है। उदाहरण-
खोजते हैं साँवरे को,हर गली हर गाँव में।
आ मिलो अब श्याम प्यारे,आमली की छाँव में।।
आपकी मन मोहनी छवि,बाँसुरी की तान जो।
गोप ग्वालों के शरीरोंं,में बसी ज्यों जान वो।। :वेद मंत्रो को विवेकी, प्रेम से पढने लगे

हरिगीतिका

हरिगीतिका चार चरणों वाला एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16 व 12 के विराम से 28 मात्रायें होती हैं तथा अंत में लघु गुरु आना अनिवार्य है। हरिगीतिका में 16 और 12 मात्राओं पर यति होती है। प्रत्येक चरण के अन्त में रगण आना आवश्यक है।
विशेष: 2212 की चार आवृत्तियों से बना रूप हरिगीतिका छंद का सर्वाधिक व्यावहारिक रूप है जिसे मिश्रितगीतिका कह सकते हैं। वस्तुतः 11212 की चार आवृत्तियों से हरिगीतिका , 2212 की चार आवृत्तियों से श्रीगीतिका तथा दोनों स्वरक स्वैच्छिक चार आवृत्तियों से मिश्रितगीतिका छंद बनता है।
उदाहरण-
प्रभु गोद जिसकी वह यशोमति,दे रहे हरि मान हैं ।
गोपाल बैठे आधुनिक रथ,पर सहित सम्मान हैं ॥
मुरली अधर धर श्याम सुन्दर,जब लगाते तान हैं ।
सुनकर मधुर धुन भावना में,बह रहे रसखान हैं॥

बरवै

बरवै अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसमें प्रथम एवं तृतीय चरण में १२ -१२ मात्राएँ तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में ७-७ मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में जगण होता है।उदाहरण-
चम्पक हरवा अंग मिलि,अधिक सुहाय।
जानि परै सिय हियरे,जब कुंभिलाय।।

छप्पय

छप्पय मात्रिक विषम छन्द है। यह संयुक्त छन्द है, जो रोला (11+13) चार पद तथा उल्लाला (15+13) के दो पद के योग से बनता है।उदाहरण-
डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।
दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर।
सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर।
चौंकि बिरंचि शंकर सहित,कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ।।

उल्लाला

उल्लाला सम मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 13-13 मात्राओं के हिसाब से 26 मात्रायें तथा 15-13 के हिसाब से 28 मात्रायें होती हैं। इस तरह उल्लाला के दो भेद होते है। तथापि 13 मात्राओं वाले छन्द में लघु-गुरु का कोई विशेष नियम नहीं है लेकिन 11वीं मात्रा लघु ही होती है।15 मात्राओं वाले उल्लाला छन्द में 13 वीं मात्रा लघु होती है। 13 मात्राओं वाला उल्लाला बिल्कुल दोहे की तरह होता है,बस दूसरे चरण में केवल दो मात्रायें बढ़ जाती हैं। प्रथम चरण में लघु-दीर्घ से विशेष फर्क नहीं पड़ता। उल्लाला छन्द को चन्द्रमणि भी कहा जाता है।उदाहरण-
यों किधर जा रहे हैं बिखर,कुछ बनता इससे कहीं।
संगठित ऐटमी रूप धर,शक्ति पूर्ण जीतो मही ॥

सवैया

सवैया चार चरणों का समपद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहा जाता है।सवैये के मुख्य १४ प्रकार हैं:- १. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखी, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी। उदाहरण-
मानुस हौं तो वही रसखान,बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो,चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को,जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥ ( कवि - रसखान )
सेस गनेस महेस दिनेस,सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,अछेद अभेद सुभेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे,पचिहारे तौं पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥। ( कवि - सूरदास )
कानन दै अँगुरी रहिहौं,जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं।
माहिनि तानन सों रसखान,अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि,काल्हि कोई कितनो समझैहैं।
माई री वा मुख की मुसकान,सम्हारि न जैहैं,न जैहैं,न जैहैं॥


कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं ।
माहिनि तानन सों रसखान, अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं ॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि, काल्हि कोई कितनो समझैहैं ।
माई री वा मुख की मुसकान, सम्हारि न जैहैं, न जैहैं, न जैहैं ॥



काजर आँख का आँस बना, अरु जाकर भाग के माथ लगा री
हाथ की फीकी पड़ी मेंहदी, अब पाँव महावर छूट गया री।
काहे वियोग मिला अइसा, मछरी जइसे तड़पे है जिया री
आए पिया नहि बीते कई दिन, जोहत बाट खड़ी दुखियारी ॥



कवित्त या घनाक्षरी वृत्त

कवित्त एक वार्णिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६, १५ के विराम से ३१ वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में गुरू वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये ८, ८, ८ और ७ वर्णों पर यति रहना चाहिये। इसके सात प्रकार हैं:- १-रूप घनाक्षरी, २-देव घनाक्षरी, ३- मनहरण घनाक्षरी , ४-डमरु या कृपाण घनाक्षरी , ५ - जलहरण घनाक्षरी ६- ७-
उदाहरण- मनहरण घनाक्षरी
कालिन्दी कौ कुंज कूल, जल की है कल कल,
कदम्ब की कारी कारी परी परछाई है ।
अलि शुक पिक काक,मधुर मयूर वाक,
कर में कमलिनी की कटि गदारई है।।
घन घूमते घनेरे,धौरे धौरे श्याम धौरे,
हिय में हिलोर ऋतु हरी हरि छाई है ,
तज दीजो कामराज आज सब साजबाज,
ब्रजराज साँवरे नै बंसुरी बजाई है।। ( कवि : पवन पागल )

मधुमालती (छंद)

मधुमालती छंद में प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 212 वाचिक भार होता है, 5-12 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है।उदाहरण -
होंगे सफल,धीरज धरो ,
कुछ हम करें,कुछ तुम करो ।
संताप में , अब मत जलो ,
कुछ हम चलें , कुछ तुम चलो ।।

विजात

विजात छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है। उदाहरण -
तुम्हारे नाम की माला,
तुम्हारे नाम की हाला ।
हुआ जीवन तुम्हारा है,
तुम्हारा ही सहारा है ।।

मनोरम

मनोरम छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं ,आदि में 2 और अंत में 211 या 122 होता है ,3-10 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है।उदाहरण-
उलझनें पूजालयों में ,
शांति है शौचालयों में।
शान्ति के इस धाम आयें,
उलझनों से मुक्ति पायें।।

शक्ति (छंद)

शक्ति छंद में 18 मात्राओं के चार चरण होते हैं, अंत में वाचिक भार 12 होता है तथा 1,6,11,16 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य होता है। उदाहरण -
चलाचल चलाचल अकेले निडर,
चलेंगे हजारों, चलेगा जिधर।
दया-प्रेम की ज्योति उर में जला,
टलेगी स्वयं पंथ की हर बेला ।।

पीयूष वर्ष

पीयूष वर्ष छंद में 10+9=19 मात्राओं के चार चरण होते हैं,अंत में 12 होता है तथा 3,10,17 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है। यदि यति अनिवार्य न हो और अंत में 2 = 11 की छूट हो तो यही छंद 'आनंदवर्धक' कहलाता है।उदाहरण-
लोग कैसे , गन्दगी फैला रहे ,
नालियों में छोड़ जो मैला रहे।
नालियों पर शौच जिनके शिशु करें,
रोग से मारें सभी को खुद मरें।।

सुमेरु

सुमेरु छंद के प्रत्येक चरण में 12+7=19 अथवा 10+9=19 मात्राएँ होती हैं ; 12,7 अथवा 10,9 पर यति होतो है ; इसके आदि में लघु 1 आता है जबकि अंत में 221,212,121,222 वर्जित हैं तथा 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण-
लहै रवि लोक सोभा , यह सुमेरु ,
कहूँ अवतार पर , ग्रह केर फेरू।
सदा जम फंद सों , रही हौं अभीता ,
भजौ जो मीत हिय सों , राम सीता।।

सगुण (छंद)

सगुण छंद के प्रयेक चरण में 19 मात्राएँ होती हैं , आदि में 1 और अंत में 121 होता है,1,6,11, 16,19 वी मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -
सगुण पञ्च चारौ जुगन वन्दनीय ,
अहो मीत, प्यारे भजौ मातु सीय।
लहौ आदि माता चरण जो ललाम ,
सुखी हो मिलै अंत में राम धाम।।

शास्त्र (छंद)

शास्त्र छंद के प्रत्येक चरण में 20 मात्राएँ होती हैं ; अंत में 21 होता है तथा 1,8,15,20 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -
मुनीके लोक लहिये शास्त्र आनंद ,
सदा चित लाय भजिये नन्द के नन्द।
सुलभ है मार प्यारे ना लगै दाम ,
कहौ नित कृष्ण राधा और बलराम।।

सिन्धु (छंद)

सिन्धु छंद के प्रत्येक चरण में 21 मात्राएँ होती है और 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -
लखौ त्रय लोक महिमा सिन्धु की भारी ,
तऊ पुनि गर्व के कारण भयो खारी।
लहे प्रभुता सदा जो शील को धारै ,
दया हरि सों तरै कुल आपनो तारै।।

बिहारी (छंद)

बिहारी छंद के प्रत्येक चरण में 14+8=22 मात्राएँ होती हैं,14,8 मात्रा पर यति होती है तथा 5,6,11,12,17,18 वीं मात्रा लघु 1 होती है। उदाहरण -
लाचार बड़ा आज पड़ा हाथ बढ़ाओ ,
हे श्याम फँसी नाव इसे पार लगाओ।
कोई न पिता मात सखा बन्धु न वामा ,
हे श्याम दयाधाम खड़ा द्वार सुदामा।।

दिगपाल (छंद)

दिगपाल छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं ;12,24 मात्रा पर यति होती है,आदि में समकल होता है और 5,8,17,20 वीं मात्रा अनिवार्यतः लघु 1 होती है।इस छंद को मृदुगति भी कहते हैं।उदाहरण-
सविता विराज दोई , दिक्पाल छन्द सोई
सो बुद्धि मंत प्राणी, जो राम शरण होई।
रे मान बात मेरी, मायाहि त्यागि दीजै
सब काम छाँड़ि मीता, इक राम नाम लीजै।।

सारस (छंद)

सारस छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं , 12,12 मात्रा पर यति होती है ;आदि में विषम कल होता है और 3,4,9,10,15,16,21,22 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदाहरण-
भानु कला राशि कला, गादि भला सारस है
राम भजत ताप भजत, शांत लहत मानस है।
शोक हरण पद्म चरण, होय शरण भक्ति सजौ
राम भजौ राम भजौ, राम भजौ राम भजौ।।

गीता (छंद)

गीता छंद के प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं; 14,12 पर यति होती है , आदि में सम कल होता है ; अंत में 21 आता है और 5,12,19,26 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदहारण -
कृष्णार्जुन गीता भुवन, रवि सम प्रकट सानंद l
जाके सुने नर पावहीं, संतत अमित आनंद l
दुहुं लोक में कल्याण कर, यह मेट भाव को शूल l
तातें कहौं प्यारे कवौं, उपदेश हरि ना भूल ll

शुद्ध गीता

शुद्ध गीता छंद के प्रत्येक चरण में 27 मात्राएँ होती हैं ; 14,13 मात्रा पर यति होती है . आदि में 21 होता है तथा 3,10,17,24,27 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -
मत्त चौदा और तेरा, शुद्ध गीता ग्वाल धार
ध्याय श्री राधा रमण को, जन्म अपनों ले सुधार।
पाय के नर देह प्यारे, व्यर्थ माया में न भूल
हो रहो शरणै हरी के, तौ मिटै भव जन्म शूल।।

विधाता (छंद)

विधाता छंद के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है ; 14,14 मात्रा पर यति होती है ; 1, 8, 15, 22 वीं मात्राएँ लघु 1 होती हैं। इसे शुद्धगा भी कहते हैं।
आप विधाता छंद का मात्रा भार इस तरह से भी समझ सकते हैं 1222 1222 1222 1222 से विधाता छंद होगा उदाहरण -
ग़ज़ल हो या भजन कीर्तन,सभी में प्राण भर देता ,
अमर लय ताल से गुंजित,समूची सृष्टि कर देता।
भले हो छंद या सृष्टा,बड़ा प्यारा 'विधाता' है ,
सुहानी कल्पना जैसी,धरा सुन्दर सजाता है।।

हाकलि

हाकलि एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 14 मात्रा होती हैं , तीन चौकल के बाद एक द्विकल होता है। यदि तीन चौकल अनिवार्य न हों तो यही छंद 'मानव' कहलाता है।
उदाहरण -
बने बहुत हैं पूजालय,
अब बनवाओ शौचालय।
घर की लाज बचाना है,
शौचालय बनवाना है।।

चौपई

चौपई एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रयेक चरण में 16 मात्रा होती हैं, अंत में 21 अनिवार्य होता है, कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को जयकरी भी कहते हैं। उदाहरण :
भोंपू लगा-लगा धनवान,
फोड़ रहे जनता के कान।
ध्वनि-ताण्डव का अत्याचार,
कैसा है यह धर्म-प्रचार।।

पदपादाकुलक

पदपादाकुलक एक सम मात्रिक छंद है। इसके एक चरण में 16 मात्रा होती हैं,आदि में द्विकल अनिवार्य होता है किन्तु त्रिकल वर्जित होता है, पहले द्विकल के बाद यदि त्रिकल आता है तो उसके बाद एक और त्रिकल आता है,कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकान्त होते है।उदाहरण :
कविता में हो यदि भाव नहीं,
पढने में आता चाव नहीं।
हो शिल्प भाव का सम्मेलन,
तब काव्य बनेगा मनभावन।।

श्रृंगार (छंद)

श्रृंगार एक सम मात्रिक छंद है। इनके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा होती हैं, आदि में क्रमागत त्रिकल-द्विकल (3+2) और अंत में क्रमागत द्विकल-त्रिकल (2+3) आते हैं, कुल चार चरण होते हैं,क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :
भागना लिख मनुजा के भाग्य,
भागना क्या होता वैराग्य।
दास तुलसी हों चाहे बुद्ध,
आचरण है यह न्याय विरुद्ध।।

राधिका (छंद)

राधिका एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 13,9 पर यति होती है, यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है, कुल चार चरण होते हैं , क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :
मन में रहता है काम , राम वाणी में,
है भारी मायाजाल, सभी प्राणी में।
लम्पट कपटी वाचाल, पा रहे आदर,
पुजता अधर्म है ओढ़, धर्म की चादर।।

कुण्डल/उड़ियाना (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 12,10 पर यति होती है , यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है औए अंत में 22 आता है। यदि अंत में एक ही गुरु 2 आता है तो उसे उड़ियाना छंद कहते हैं l कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।
कुण्डल का उदाहरण :
गहते जो अम्ब पाद, शब्द के पुजारी,
रचते हैं चारु छंद, रसमय सुखारी।।
देती है माँ प्रसाद, मुक्त हस्त ऐसा,
तुलसी रसखान सूर, पाये हैं जैसा।।
उड़ियाना का उदाहरण :
ठुमकि चालत रामचंद्र, बाजत पैंजनियाँ,
धाय मातु गोद लेत, दशरथ की रनियाँ।
तन-मन-धन वारि मंजु, बोलति बचनियाँ,
कमल बदन बोल मधुर, मंद सी’ हँसनियाँ।। ( कवि : तुलसीदास )

रूपमाला

रूपमाला एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 24 मात्राएं होती हैं एवं 14,10 पर यति होती है, आदि और अंत में वाचिक भार 21 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों में तुकांत होता है। इसे मदन भी कहते हैं। उदाहरण :
देह दलदल में फँसे हैं, साधना के पाँव,
दूर काफी दूर लगता, साँवरे का गाँव।
क्या उबारेंगे कि जिनके, दलदली आधार,
इसलिए आओ चलें इस, धुंध के उसपार।।

मुक्तामणि

मुक्तामणि एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होतीं हैं और 13,12 पर यति होती है। यति से पहले वाचिक भार 12 और चरणान्त में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं; क्रमागत दो-दो चरण तुकांत। दोहे के क्रमागत दो चरणों के अंत में एक लघु बढ़ा देने से मुक्तामणि का एक चरण बनता है। उदाहरण :
विनयशील संवाद में, भीतर बड़ा घमण्डी,
आज आदमी हो गया, बहुत बड़ा पाखण्डी।
मेरा क्या सब आपका, बोले जैसे त्यागी,
जले ईर्ष्या द्वेष में, बने बड़ा बैरागी।।

गगनांगना छंद

गगनांगना एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होती हैं और 16,9 पर यति होती है एवं चरणान्त में 212। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :
कब आओगी फिर, आँगन की, तुलसी बूझती
किस-किस को कैसे समझाऊँ, युक्ति न सूझती।
अम्बर की बाहों में बदरी, प्रिय तुम क्यों नहीं
भारी है जीवन की गठरी, प्रिय तुम क्यों नहीं।।

विष्णुपद

विष्णुपद एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 2 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :
अपने से नीचे की सेवा, तीर-पड़ोस बुरा,
पत्नी क्रोधमुखी यों बोले, ज्यों हर शब्द छुरा।
बेटा फिरे निठल्लू बेटी, खोये लाज फिरे,
जले आग बिन वह घरवाला, घर पर गाज गिरे।।

शंकर (छंद)

शंकर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है एवं चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होता है।उदाहरण :
सुरभित फूलों से सम्मोहित, बावरे मत भूल
इन फूलों के बीच छिपे हैं, घाव करते शूल।
स्निग्ध छुअन या क्रूर चुभन हो, सभी से रख प्रीत
आँसू पीकर मुस्काता चल, यही जग की रीत।।

सरसी

सरसी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 27 मात्राएं होती हैं औथ 16,11 पर यति होती है, चरणान्त में 21 लगा अनिवार्य है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को कबीर या सुमंदर भी कहते हैं। चौपाई का कोई एक चरण और दोहा का सम चरण मिलाने से सरसी का एक चरण बन जाता है l उदाहरण :
पहले लय से गान हुआ फिर,बना गान ही छंद,
गति-यति-लय में छंद प्रवाहित,देता उर आनंद।
जिसके उर लय-ताल बसी हो,गाये भर-भरतान,
उसको कोई क्या समझाये,पिंगल छंद विधान।।

रास (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 22 मात्रा होती हैं एवं 8,8,6 पर यति होती है अंत में 112। चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :
व्यस्त रहे जो, मस्त रहे वह, सत्य यही,
कुछ न करे जो, त्रस्त रहे वह, बात सही।
जो न समय का, मूल्य समझता, मूर्ख बड़ा,
सब जाते उस, पार मूर्ख इस, पार खड़ा।।

निश्चल (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 23 मात्रा होती हैं एवं 16,7 पर यति होती है और चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :
बीमारी में चाहे जितना, सह लो क्लेश,
पर रिश्ते-नाते में देना, मत सन्देश।
आकर बतियायें, इठलायें, निस्संकोच,
चैन लूट रोगी का, खायें, बोटी नोच।।

सार (छंद)

सार एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 28 मात्राएं होतीं हैं और 16,12 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :
कितना सुन्दर कितना भोला,था वह बचपन न्यारा
पल में हँसना पल में रोना,लगता कितना प्यारा।
अब जाने क्या हुआ हँसी के,भीतर रो लेते हैं
रोते-रोते भीतर-भीतर,बाहर हँस देते हैं।।

लावणी (छंद)

लावणी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 30 मात्राएं होतीं हैं और 16,14 पर यति होती है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटंक , 22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छंद कहलाता है। उदाहरण :
तिनके-तिनके बीन-बीन जब,पर्ण कुटी बन पायेगी,
तो छल से कोई सूर्पणखा,आग लगाने आयेगी।
काम अनल चन्दन करने का,संयम बल रखना होगा,
सीता सी वामा चाहो तो,राम तुम्हें बनना होगा।।

वीर (छंद)

वीर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 31 मात्राएं होतीं हैं और 16,15 पर यति होती है। चरणान्त में वाचिक भार 21 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होते हैं। इसे आल्हा भी कहते हैं। उदाहरण :
विनयशीलता बहुत दिखाते,लेकिन मन में भरा घमण्ड,
तनिक चोट जो लगे अहम् को,पल में हो जाते उद्दण्ड l
गुरुवर कहकर टाँग खींचते,देखे कितने ही वाचाल,
इसीलिये अब नया मंत्र यह,नेकी कर सीवर में डाल l

त्रिभंगी

त्रिभंगी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 32 मात्राएं होतीं हैं और 10,8,8,6 पर यति होती है एवं चरणान्त में 2 होता है। कुल चार चरण होते हैं और।क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। पहली तीन या दो यति पर आतंरिक तुकांत होने से छंद का लालित्य बढ़ जाता है। तुलसी दास ने पहली दो यति पर आतंरिक तुकान्त का अनिवार्यतः प्रयोग किया है। उदाहरण :
तम से उर डर-डर, खोज न दिनकर, खोज न चिर पथ, ओ राही,
रच दे नव दिनकर, नव किरणें भर, बना डगर नव, मन चाही l
सद्भाव भरा मन, ओज भरा तन, फिर काहे को, डरे भला,
चल-चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला l

कुण्डलिनी (छंद)

कुण्डलिनी एक विषम मात्रिक छंद है। दोहा और अर्ध रोला को मिलाने से कुण्डलिनी छंद बनता है जबकि दोहा के चतुर्थ चरण से अर्ध रोला का प्रारंभ होता हो (पुनरावृत्ति)। इस छंद में यथारुचि प्रारंभिक शब्द या शब्दों से छंद का समापन किया जा सकता है (पुनरागमन), किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। दोहा और रोला छंदों के लक्षण अलग से पूर्व वर्णित हैं l कुण्डलिनी छंद में कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।
कुण्डलिनी = दोहा + अर्धरोला
उदाहरण :
जननी जनने से हुई, माँ ममता से मान,
जननी को ही माँ समझ, भूल न कर नादान।
भूल न कर नादान, देख जननी की करनी,
करनी से माँ बने, नहीं तो जननी जननी।।

वियोगिनी

इसके सम चरण में 11-11 और विषम चरण में 10 वर्ण होते हैं। विषम चरणों में दो सगण , एक जगण , एक सगण और एक लघु व एक गुरु होते हैं। जैसे -
विधि ना कृपया प्रबोधिता,
सहसा मानिनि सुख से सदा
करती रहती सदैव ही
करुण की मद-मय साधना।।

प्रमाणिका

इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में ८-८ वर्ण होते हैं। चरण में वर्णों का क्रम लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु (।ऽ।ऽ।ऽ।ऽ) होता है। गणों में लिखे तो जगण-रगण-लगण-गगण। उदाहरण :
नमामि भक्तवत्सलं कृपालुशीलकोमलम्।
भजामि ते पदाम्बुजम् अकामिनां स्वधामदम्॥

वंशस्थ

इसे वंशस्थविल अथवा वंशस्तनित भी कहते हैं । इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं और गणों का क्रम होता है – जगण, तगण, जगण, रगण। प्रत्येक चरण में पाँचवे और बारहवे वर्ण के बाद यति होती है। जैसे -
गिरिन्द्र में व्याप्त विलोकनीय थी,
वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी
अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी
असेत जम्बालिनी कूल जम्बुकीय।।

शिखरिणी

शिखरिणी छंद में क्रमशः यगण, मगण, नगण, सगण, भगण होने से 12 वर्ण होते हैं और लघु तथा गुरु के क्रम से प्रत्येक चरण में वर्ण रखे जाते हैं और 6 तथा 11 वर्णों के बाद यति होती है। उदाहरण :
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादधिगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥

शार्दूल विक्रीडित

इसमें 19 वर्ण होते हैं। 12, 7 वर्णों पर विराम होता है। हर चरण में मगण , सगण , जगण , सगण , तगण , और बाद में एक गुरु होता है। उदाहरण :
रे रे चातक ! सावधान-मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्
अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वे तु नैतादृशाः ।
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥

उपजाति (छंद)

इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के चरण जब एक ही छन्द में प्रयुक्त हों तो उस छन्द को उपजाति कहते हैं। उदाहरण :
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥

वसंततिलका

वसन्ततिलका छन्द सम वर्ण वृत्त छन्द है। यह चौदह वर्णों वाला छन्द है। 'तगण', 'भगण', 'जगण', 'जगण' और दो गुरुओं के क्रम से इसका प्रत्येक चरण बनता है।उदाहरण-
हे हेमकार पर दुःख-विचार-मूढ
किं माँ मुहुः क्षिपसि वार-शतानि वह्नौ।
सन्दीप्यते मयि तु सुप्रगुणातिरेको
लाभः परं तव मुखे खलु भस्मपातः॥

इन्द्रवज्रा

इन्द्रवज्रा छन्द एक सम वर्ण वृत्त छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं। इन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु के क्रम से वर्ण रखे जाते हैं।उदाहरण-
विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः
प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः।
लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो,
सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥

उपेन्द्रवज्रा

उपेन्द्रवज्रा एक सम वर्ण वृत्त छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं। उपेन्द्रवज्रा छन्द के प्रत्येक चरण में 'जगण', 'तगण', 'जगण' और दो गुरु वर्णों के क्रम से वर्ण होते हैं। उदाहरण:
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव-देव॥

बहुलक

  • वाचिक भार अर्थात लय को ध्यान में रखते हुए मापनी के किसी भी गुरु 2 के स्थान पर दो लघु 11 का प्रयोग किया जाना।
  • पिंगल के अनुसार , , , , और इन पाँचों अक्षरों को छंद के आरंभ में रखना वर्जित है, इन पाँचों को दग्धराक्षर कहते हैं। दग्धराक्षरों की कुल संख्या 19 है परंतु उपर्युक्त पाँच विशेष हैं। वे 19 इस प्रकार हैं:- , , , , , फ़, , , , ङ्, , , , , , , , ,
परिहार- कई विशेष स्थितियों में अशुभ गणों अथवा दग्धराक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता। यदि मंगलसूचक अथवा देवतावाचक शब्द से किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार हो जाता है। उदाहरण :
गणेश जी का ध्यान कर, अर्चन कर लो आज।
निष्कंटक सब मिलेगा, मूल साथ में ब्याज।।
उपर्युक्त दोहे के प्रारंभ में ज-गणात्मक शब्द है जिसे अशुभ माना गया है परंतु देव-वंदना के कारण उसका दोष-परिहार हो गया है।
  • द्विकल का अर्थ है 2 या 11 मात्राएं, त्रिकल का अर्थ है 21 या 12 या 111 मात्राएं, चौकल का अर्थ है 22 या 211 या 112 या 121 या 1111 मात्राएं
  • चौपाई आधारित छंद:-
16 मात्रा के चौपाई छंद में कुछ मात्राएँ घटा-बढ़ाकर अनेक छंद बनते है। ऐसे चौपाई आधारित छंदों का चौपाई छंद से आतंरिक सम्बन्ध यहाँ पर दिया जा रहा है। इससे इन छंदों को समझने और स्मरण रखने में बहुत सुविधा हो सकती है:-
चौपाई – 1 = 15 मात्रा का चौपई छंद, अंत 21
चौपाई + 6 = 22 मात्रा का रास छंद, अंत 112
चौपाई + 7 = 23 मात्रा का निश्चल छंद, अंत 21
चौपाई + 9 = 25 मात्रा का गगनांगना छंद, अंत 212
चौपाई + 10 = 26 मात्रा का शंकर छंद, अंत 21
चौपाई + 10 = 26 मात्रा का विष्णुपद छंद, अंत 2
चौपाई + 11 = 27 मात्रा का सरसी/कबीर छंद, अंत 21
चौपाई + 12 = 28 मात्रा का सार छंद, अंत 22
चौपाई + 14 = 30 मात्रा का ताटंक छंद, अंत 222
चौपाई + 14 = 30 मात्रा का कुकुभ छंद, अंत 22
चौपाई + 14 = 30 मात्रा का लावणी छंद, अंत स्वैच्छिक
चौपाई + 15 = 31 मात्रा का वीर/आल्हा छंद, अंत 21
  • दोहे से लेकर कवित्त और हाकलि से लेकर शार्दूल विक्रीडित तक सभी छंद मापनीमुक्त हैं और मधुमालती से लेकर विधाता तक सभी छंद मापनीयुक्त हैं।
  • कुण्डलिनी छंद को लिखने के कुछ विशेष नियम निम्न हैं:-
    • (क) इस छंद के प्रथम दो चरणों के मात्राभार (13,11) और नियम एक जैसे हैं तथा उससे भिन्न अंतिम दो चरणों के मात्राभार (11,13) और नियम एक जैसे हैं। अस्तु यह छंद विषम मात्रिक है।
    • (ख) दोहे के चतुर्थ चरण की अर्धरोला के प्रारंभ में पुनरावृत्ति सार्थक होनी चाहिए अर्थात दुहराया गया अंश दोनों चरणों में सार्थकता के साथ आना चाहिए।
    • (ग) चूँकि कुण्डलिनी के अंत में वाचिक भार 22 आता है, इसलिए यदि पुनरागमन रखना है तो इसका प्रारंभ भी वाचिक भार 22 या गागा से ही होना चाहिए अन्यथा पुनरागमन दुरूह या असंभव हो जायेगा l
    • (घ) कथ्य का मुख्य भाग अंतिम चरणों में केन्द्रित होना चाहिए, तभी छंद अपना पूरा प्रभाव छोड़ पाता है।
  • उपजाति, शार्दूल विक्रीडित, प्रमाणिका,वसन्ततिलका, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, शिखरिणी के केवल उदाहरण संस्कृत के हैं, वे स्वयं संस्कृत के छंद नहीं हैं एवं वे वैदिक छंदों की श्रेणी में भी नहीं आते।



प्रमुख मात्रिक छंद

(A) सम मात्रिक छंद : अहीर (11 मात्रा), तोमर (12 मात्रा), मानव (14 मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/पद्धटिका, चौपाई (सभी 16 मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों 19 मात्रा), राधिका (22 मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा), गीतिका (26 मात्रा), सरसी (27 मात्रा), सार (28 मात्रा), हरिगीतिका (28 मात्रा), ताटंक (30 मात्रा), वीर या आल्हा (31 मात्रा) ।

(B) अर्द्धसम मात्रिक छंद : बरवै (विषम चरण में- 12 मात्रा, सम चरण में- 7 मात्रा), दोहा (विषम- 13, सम- 11), सोरठा (दोहा का उल्टा), उल्लाला (विषम-15, सम-13)।

(C) विषम मात्रिक छंद : कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला)।

(4) मुक्तछन्द-जिस समय छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णो की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।
उदाहरण- निराला की कविता 'जूही की कली' इत्यादि।

चरणों की अनियमित, असमान, स्वच्छन्द गति और भावानुकूल यतिविधान ही मुक्तछन्द की विशेषता है। इसका कोई नियम नहीं है। यह एक प्रकार का लयात्मक काव्य है, जिसमें पद्य का प्रवाह अपेक्षित है। निराला से लेकर 'नयी कविता' तक हिन्दी कविता में इसका अत्यधिक प्रयोग हुआ है।

इसमें न तो वर्णों की गणना होती है, न मात्राओं की। भाव-प्रवाह के आधार पर पदरचना होती है।


प्रमुख वर्णिक छंद

(1) इंद्रवज्रा (2) उपेन्द्रवज्रा (3) तोटक (4) वंशस्थ (5) द्रुतविलंबित (6) भुजंगप्रयात (7) वसंततिलका
(8) मालिनी (9) मंदाक्रांता (10) शिखरिणी (11) शार्दूलविक्रीडित (12) सवैया (13) कवित्त

(1) इंद्रवज्रा- प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं। इनका क्रम है- तगण, नगण, जगण तथा अंत में दो गुरु (ऽऽ ।, । । ।, । ऽ।, ऽऽ) । यथा-

तूही बसा है मन में हमारे।
तू ही रमा है इस विश्र्व में भी।।
तेरी छटा है मनमुग्धकारी।
पापापहारी भवतापहारी।।

(2) उपेन्द्रवज्रा- प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- जगण, तगण, जगण और अंत में दो गुरु (। ऽ।, ऽऽ ।, । ऽ।, ऽऽ) । यथा-

बड़ा कि छोटा कुछ काम कीजै।
परन्तु पूर्वापर सोच लीजै।।
बिना विचारे यदि काम होगा।।
कभी न अच्छा परिणाम होगा।।

(3) तोटक- प्रत्येक चरण में चार सगण ( । । ऽ) अर्थात १२ वर्ण होते हैं। यथा -

जय राम सदा सुखधाम हरे।
रघुनायक सायक-चाप धरे।।
भवबारन दारन सिंह प्रभो।
गुणसागर नागर नाथ विभो।।

(4) वंशस्थ- प्रत्येक चरण में 12 वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- जगण, तगण, जगण और रगण (। ऽ।, ऽऽ ।, । ऽ।, ऽ। ऽ) । यथा-

जहाँ लगा जो जिस कार्य बीच था।
उसे वहाँ ही वह छोड़ दौड़ता।।
समीप आया रथ के प्रमत्त सा।
विलोकन को घनश्याम माधुरी।।

(5) द्रुतविलम्बित- इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक नगण (।।।), दो भगण (ऽ।।, ऽ।।)और एक रगण (ऽ।ऽ) के क्रम से 12 वर्ण होते हैं। उदाहरण-

न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ,
सफलता वह पा सकता कहाँ ?

(6) भुजंगप्रयात- इसके प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं। इसमें चार यगण होते हैं। यथा-

अरी व्यर्थ है व्यंजनों की बड़ाई।
हटा थाल तू क्यों इसे साथ लाई।।
वही पार है जो बिना भूख भावै।
बता किंतु तू ही उसे कौन खावै।।

(7) वसंततिलका- इसके प्रत्येक चरण में 14 वर्ण होते हैं। वर्णो के क्रम में तगण ( ऽऽ।), भगण (ऽ।।),
दो जगण (। ऽ।, । ऽ।) तथा दो गुरु ( ऽऽ) रहते हैं। जैसे-

रे क्रोध जो सतत अग्नि बिना जलावे।
भस्मावशेष नर के तन को बनावे।।
ऐसा न और तुझ-सा जग बीच पाया।
हारे विलोक हम किंतु न दृष्टि आया।

(8) मालिनी- इस छन्द में । ऽ वर्ण होते हैं तथा आठवें व सातवें वर्ण पर यति होती है। वर्णों के क्रम में
दो नगण (।।।, ।।।), एक मगन (ऽऽऽ) तथा दो यगण (।ऽऽ, ।ऽऽ) होते हैं; जैसे-

पल-पल जिसके मैं पन्थ को देखती थी,
निशिदिन जिसके ही ध्यान में थी बिताती।

(9) मन्दाक्रान्ता- इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक मगण (ऽऽऽ), एक भगण (ऽ।।), एक नगण (।।।), दो तगण (ऽऽ।, ऽऽ।) तथा दो गुरु (ऽऽ) मिलाकर 17 वर्ण होते हैं। चौथे, छठवें तथा सातवें वर्ण पर यति होती है; जैसे-

तारे डूबे, तम टल गया, छा गई व्योम-लाली।
पक्षी बोले, तमचर, जगे, ज्योति फैली दिशा में।।
शाखा डोली तरु निचय की, कंज फूले सरों के।
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े, तामसी रात बीती।।

(10) शिखरिणी- इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ), एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण ( ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) होता है। इसमें 17 वर्ण तथा छः वर्णों पर यति होता है; जैसे-

मनोभावों के हैं शतदल जहाँ शोभित सदा।
कलाहंस श्रेणी सरस रस-क्रीड़ा-निरत है।।
जहाँ हत्तंत्री की स्वरलहरिका नित्य उठती।
पधारो हे वाणी, बनकर वहाँ मानसप्रिया।।

(11) शार्दूलविक्रीडित- इसके प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण, और अंत में गुरु। यति 12, 7 वर्णों पर होती है। यथा-

सायंकाल हवा समुद्र-तट की आरोग्यकारी यहाँ।
प्रायः शिक्षित सभ्य लोग नित ही जाते इसी से वहाँ।।
बैठे हास्य-विनोद-मोद करते सानंद वे दो घड़ी।
सो शोभा उस दृश्य की ह्रदय को है तृप्ति देती बड़ी।।

(12) सुन्दरी सवैया- जिन छंदों के प्रत्येक चरण में 22 से 26 वर्ण होते है, उन्हें 'सवैया' कहते हैं।

यह बड़ा ही मधुर एवं मोहक छंद है। इसका प्रयोग तुलसी, रसखान, मतिराम, भूषण, देव, घनानंद तथा भारतेंदु जैसे कवियों ने किया है। इसके अनेक प्रकार और अनेक नाम हैं; जैसे- मत्तगयंद, दुर्मिल, किरीट, मदिरा, सुंदरी, चकोर आदि।

इस छन्द के प्रत्येक चरण में आठ सगण (।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ,।।ऽ) और अन्त में एक गुरु (ऽ) मिलाकर 25 वर्ण होते है; जैसे-

मानुष हों तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हों तो कहा बसु मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।
पाहन हों तो वही गिरि को जो धरयौ करछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।।

(13) कवित्त- यह वर्णिक छंद है। इसमें गणविधान नहीं होता, इसलिए इसे 'मुक्त वर्णिक छंद' भी कहते हैं।

कवित्त के प्रत्येक चरण में 31 से 33 वर्ण होते हैं। इसके अनेक भेद हैं जिन्हें मनहरण, रूपघनाक्षरी, देवघनाक्षरी आदि नाम से पुकारते हैं।

मनहरण कवित्त का एक उदाहरण लें। इसके प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते हैं। अंत में गुरु होता है। 16, 15 वर्णो पर यति होती है। जैसे-

इंद्र जिमि जंभ पर बाडव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं।
पौन वारिवाह पर संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज हैं।
दावा द्रुमदंड पर चीता मृगझुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम-अंस पर कान्ह जिमि कंस पर,

प्रमुख मात्रिक छन्द

(1) चौपाई- यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती है। चरण के अन्त में जगण (।ऽ।) और तगण (ऽऽ।) का आना वर्जित है। तुक पहले चरण की दूसरे से और तीसरे की चौथे से मिलती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। उदाहरणार्थ-

नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुनगन गावन लागे ।।

गुरु पद रज मृदु मंजुल मंजन। नयन अमिय दृग दोष विभंजन।।
तेहि करि विमल विवेक विलोचन। बरनउँ रामचरित भवमोचन ।।


रामचरित मानस को ताका । 
तुलसी की लहराय पताका ॥ 
शास्त्री जी की कक्षा कर लो ।   
छंदों का रस दिल में भर लो ॥   



सहज सरल समझाय सलीका । चौपाई का मस्त तरीका ॥ सोलह सोलह चार चरण में । तिम मात्रा दीर्घ वर्ण में ॥



श्याम-सलोनी निर्मल काया । lSl lSS lll SS = 16 मात्राएं बहुत निराली प्रभु की माया ॥ lll lSS ll S SS = 16 मात्राएं जब भी दर्श तुम्हारा पाते । ll S lS lSS SS = 16 मात्राएं कली सुमन बनकर मुस्काते ॥ lS lll llll llSS = 16 मात्राएं



(2) रोला (काव्यछन्द)- यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। इसके प्रत्येक चरण में 11 और 13 मात्राओं पर यति ही अधिक प्रचलित है। प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरु या दो लघु वर्ण होते हैं। दो-दो चरणों में तुक आवश्यक है। उदाहरणार्थ-

जो जगहित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोकहित में लग जाता ।।


उठो–उठो हे वीर, आज तुम निद्रा त्यागो। 
करो महा संग्राम, नहीं कायर हो भागो ॥  
तुम्हें वरेगी विजय, अरे यह निश्चय जानो। 
भारत के दिन लौट, आयगे मेरी मानो ॥ 


हे देवी! यह नियम, सृष्टि में सदा अटल है ।  
 S  SS  ll  lll  ,lS S  lS lll  S           = 11+13=24 मात्राएं  
 वह दत्ता है वही, सुरक्षित जो बलवान है ॥  
 ll llS S lS , llll  S  llSl  S             = 11+13=24 मात्राएं 
 निर्बल का है नहीं, जगत में कहीं ठिकाना । 
  SS  S  S lS , lll  S lS   lSS             = 11+13=24 मात्राएं   
 रक्षा साधन उसको, प्राप्त हो चाहे नाना ॥   
 lS  Sll  llS  , Sl  S  SS  SS              = 11+13=24 मात्राएं  



(3) हरिगीतिका- यह मात्रिक सम छन्द है। इस छन्द के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं। 16 और 12 मात्राओं पर यति तथा अन्त में लघु-गुरु का प्रयोग ही अधिक प्रचलित है। उदाहरणार्थ-

कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ।।

(4) बरवै- यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में 12 और सम चरणों (दूसरे और चौथे) में 7 मात्राएँ होती है। सम चरणों के अन्त में जगण या तगण आने से इस छन्द में मिठास बढ़ती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। जैसे-

वाम अंग शिव शोभित, शिवा उदार।
सरद सुवारिद में जनु, तड़ित बिहार ।।

(5) दोहा- यह अर्द्धसममात्रिक छन्द है। इसमें 24 मात्राएँ होती हैं। इसके विषम चरण (प्रथम व तृतीय) में 13-13 तथा सम चरण (द्वितीय व चतुर्थ) में 11-11 मात्राएँ होती हैं; जैसे-

''मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय।।''


लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार। 
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार॥


कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।   
 lSl  Sll Sl  S , ll ll  llS  Sl              = 13+11=24 मात्राएं 
 अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥ 
 Sll  SS   SlS  ,lS  lS  llSl                 = 13+11=24 मात्राएं 


(6) सोरठा- यह भी अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। यह दोहा का विलोम है, इसके प्रथम व तृतीय चरण में 11-11 और द्वितीय व चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएँ होती है; जैसे-

''सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहँसे करुना ऐन चितइ जानकी लखन तन।।''


चक्खि न लिया साव, कबीर प्रेम न चक्खिया। 
 ज्यूं आया त्यूं जाव, सूने घर का पाहुना॥

हम पर बरसा आई ,कबीर बादल प्रेम का 
 ll  ll llS  Sl , lSl  Sll Sl  S     = 11+13=24 मात्राएं 
 हरी भई बनराई , अंतरि भीगी आतमा ॥ 
 lS lS  llSl ,  Sll  SS   SlS        = 11+13=24 मात्राएं




(7) वीर- इसके प्रत्येक चरण में 31 मात्राएँ होती हैं। 16, 15 पर यति पड़ती है। अंत में गुरु-लघु का विधान है। 'वीर' को ही 'आल्हा' कहते हैं।

सुमिरि भवानी जगदंबा को, श्री शारद के चरन मनाय।
आदि सरस्वती तुमको ध्यावौं, माता कंठ विराजौ आय।।
ज्योति बखानौं जगदंबा कै, जिनकी कला बरनि ना जाय।
शरच्चंद्र सम आनन राजै, अति छबि अंग-अंग रहि जाय।।

(8) उल्लाला- इसके पहले और तीसरे चरणों में 15-15 तथा दूसरे और चौथे चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। यथा-

हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है।
हे मातृभूमि ! संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।।

(9) कुंडलिया- यह 'संयुक्तमात्रिक छंद' है। इसका निर्माण दो मात्रिक छंदों-दोहा और रोला-के योग से होता है। पहले एक दोहा रख लें और उसके बाद दोहा के चौथे चरण से आरंभ कर यदि एक रोला रख दिया जाए तो वही कुंडलिया छंद बन जाता है। जिस शब्द से कुंडलिया प्रारंभ हो, समाप्ति में भी वही शब्द रहना चाहिए- यह नियम है, किंतु इधर इस नियम का पालन कुछ लोग छोड़ चुके हैं। दोहा के प्रथम और द्वितीय चरणों में (13 + 11) 24 मात्राएँ होती हैं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरणों (13 + 11) में भी 24 मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार दोहे के चार चरण कुंडलिया के दो चरण बन जाते हैं। रोला सममात्रिक छंद हैं जिसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। प्रारंभ के दो चरणों में 13 और 11 मात्राएँ पर यति होती है तथा अंत के चार चरणों में 11 और 13 मात्राओं पर।

हिन्दी में गिरिधर कविराय कुंडलियों के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं। वैसे तुलसी, केशव आदि ने भी कुछ कुंडलियाँ लिखी हैं। उदाहरण देखें-

दौलत पाय न कीजिए, सपने में अभिमान।
चंचल जल दिन चारि कौ, ठाउँ न रहत निदान।।
ठाउँ न रहत निदान, जियन जग में जस लीजै।
मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै।।
कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घर तौलत।
पाहुन निसिदिन चारि, रहत सब ही के दौलत।।


साईं इस संसार में, मतलब को व्यवहार
 जब लगि पैसा गाँठ में तब लगि ताको यार
 तब लगि ताको यार,यार संगहि संग डोलें
 पैसा रहा न पास, यार मुख सों नहिं बोले
 कह गिरधर कविराय जगत यहि लेखा भाई
 करत बेगर्जी प्रीति यार बिरला कोई सांईं।


सावन बरसा जोर से, प्रमुदित हुआ किसान लगा रोपने खेत में, आशाओं के धान आशाओं के धान, मधुर स्वर कोयल बोले लिए प्रेम-सन्देश, मेघ सावन के डोले 'ठकुरेला' कविराय, लगा सबको मनभावन मन में भरे उमंग, झूमता गाता सावन



(10) छप्पय- यह संयुक्तमात्रिक छंद है। इसका निर्माण मात्रिक छंदों- रोला और उल्लाला- के योग से होता है। पहले रोला को रख लें जिसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होंगी। इसके बाद एक उल्लाला को रखें। उल्लाला के प्रथम तथा द्वितीय चरणों में (15 + 13) 28 मात्राएँ होंगी तथा तृतीय और चतुर्थ चरणों में भी (15 + 13) 28 मात्राएँ होंगी। रोला के चार चरण तथा उल्लाला के चार चरण- जो यहाँ दो चरण हो गये हैं- मिलकर छप्पय के छह चरण अर्थात छह पाद या पाँव हो जाएँगे। प्रथम चार चरणों में 11, 13 तथा अंत के दो चरणों में 14, 13 मात्राओं पर यति होगी।

जिस प्रकार तुलसी की चौपाइयाँ, बिहारी के दोहे, रसखान के सवैये, पद्माकर के कवित्त तथा गिरिधर कविराय की कुंडलिया प्रसिद्ध हैं; उसी प्रकार नाभादास के छप्पय प्रसिद्ध हैं। उदाहरण के लिए मैथलीशरण गुप्त का एक छप्पय देखें-

जिसकी रज में लोट-पोट कर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल-भरे हीरे कहलाये।।
हम खेले कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि ! तुमको निरख मग्न क्यों न हों मोद में।।

मुक्तछंद

मुक्तछंद में न तो वर्णों का बंधन होता है और न मात्राओं का ही। कवि का भावोच्छ्वास काव्य की एक पूर्ण इकाई में व्यक्त हो जाता है। मुक्तछंद पर्वत के अंतस्तल से फूटता स्रोत है, जो अपने लिए मार्ग बना लेता है। मुक्त छंद के लिए बने-बनाये ढाँचे अनुपयुक्त होते हैं। उदाहरण के लिए एक मुक्तछंद देखें-

चितकबरे चाँद को छेड़ो मत
शकुंतला-लालित-मृगछौना-सा अलबेला है।
प्रणय के प्रथम चुंबन-सा
लुके-छिपे फेंके इशारे-सा कितना भोला है।
टाँग रहा किरणों के झालर शयनकक्ष में चौबारा
ओ मत्सरी, विद्वेषी ! द्वेषानल में जलना अशोभन है।
दक्षिण हस्त से यदि रहोगे कार्यरत
तो पहनायेगा चाँद कभी न कभी जयमाला।